Sunday, July 24, 2011

SHAAM

एक शाम वो भी हुआ करती थी
जब सरे दोस्त मिल के खेल ते थे,
गिर टी हुई और हास त़ी हुई;
इंतज़ार होती थी हर उस शाम की
कब मिले ,और खूब खेले ,
घर लौट टी थी
मम्मी की सो बार बुलाने पर.

और वो भी एक शाम होती थी
जब पढने बैठ ती थी अपने सर के साथ,
वो विज्ञानं और सवाल की दुनिया में खो जाना
और एक नयी मोती ढूंड पाना किताब की हर एक पन्ने पर.

फिर कुछ शाम असीसे भी थे
जब परिन्दों की घर वापस आना और रंगीन बदोलो को
देखते हुई भविष्य के स्वप्नों माय खो जाना
और ऐसे शाम में जीवन से मिलना
कभी कोई कबिता और कभी रजनी घंधा के खुसबू के साथ.

लेकिन हर वोह शाम, अहेसास दिलाती थी मेरी होने की
जीवन एक आज़ादी और कुछ पूरे साँसों के दुसरे नाम
आज काल शाम अति है चुप के से
सन्नाटो में लिपटी एक अहेसास लेकर




एक और शाम गुजारी हु ज़िंदगी की
खुद से जुद्दा होकर और कुछ अधूरी सांस एक साथ.


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